बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास-II बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास-IIसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास-II - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- किशनगढ़ शैली पर निबन्धात्मक लेख लिखिए।
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. किशनगढ़ शैली के मुख्य कवि एवं उनकी रचनाएँ लिखिए।
2. किशनगढ़ शैली में मुख्य रूप से किसके चित्र मिलते है?
उत्तर-
किशनगढ़ में 1748 से 1764 ई. तक का समय साहित्य, संगीत तथा चित्रण के क्षेत्र में बहुत महत्वपूर्ण था क्योंकि जहाँ सावन्त सिंह का शासन था (इस समय काँगड़ा में गुलेर गोवर्धन चन्द्र का शासन था ) | सावन्त सिंह एक कवि थे और नागरी दास के नाम से काव्य रचना करते थे।
इनकी रचनायें मनोरथ मंजरी, रसिक रत्नावली तथा बिहारी चन्द्रिका के नाम से जानी जाती है। अपने पिता राजसिंह के निर्देशन में सावन्त सिंह को कला एवं साहित्य का प्रशिक्षण मिला। 1731 ई० की एक घटना ने उनके जीवन के अध्याय को ही बदल डाला जब इनकी सौतेली माँ ने एक नवयुवती को दरबार में गायिका के रूप में नियुक्त किया जिसे वह दिल्ली से लाई थी।
जब सावन्त सिंह ने इसे देखा वह उसी पर आसक्त हो गये। इस नवयुवती का वास्तविक नाम अज्ञात था परन्तु सावन्त सिंह ने इसे बनी-ठनी का नाम दिया यह बनी-ठनी किशनगढ़ के कलाकारों के लिये प्रेरणा स्त्रोत बनीं। बनी-ठनी के इस रूप में इतना सौंदर्य है कि इसे भारतीय मोनालिसा माना जाता है।
शेखावत के शब्दों में आकर्षण विस्पारित नेत्र आगे निकली हुई इकहरी चिबुक वाली किशनगढ़ शैली की बनी ठनी लियोनार्डो दा विन्सी कृत मोनालिसा के समकक्ष है जिसे विश्व का सर्वोत्कृष्ट चित्र माना गया है बनी-ठनी का रूप सौन्दर्य अत्यन्त कोमल है जिसके कर्ण चुम्बी नेत्र, धनुषाकार भवें, कान के पास अलकावलिया नुकीली नासिका रसीले रक्तिम होंठ गले में मोतियों के आभूषण तथा एक अंगुली से पारदर्शी ओढ़नी का एक छोर कोमलता से थामे सभी स्वयं में एक आदर्श सौन्दर्य की उत्तम पराकष्ठा हैं।
किशनगढ़ शैली के चित्रों में राधा के सौन्दर्य को प्रस्तुत करने में बनी-ठनी का रूप ही कलाकारों के लिये आदर्श बना जिसे मोरध्वज निहालचन्द नामक चित्रकार ने बनाया । उसका लम्बा छरहरा शरीर सुकोमल पतला किच्चित, लम्बा मुख, ढलवी माथा, नुकीली नासिका, पतले ऊपर को उठे अधर कर्ण चुम्बी खजनाकृति नेत्र, धनुषाकार भौहें कानों के पास अलकावलियाँ मेहदी से रचे सुकोमल हाथ महावर से रचे पैर खुले केश आदि सभी एक लज्जायुक्त नवयौवना के रूप सौन्दर्य को प्रस्तुत करने में सहायक बने हैं।
यहाँ की नारी आकृतियों को घेरदार चुन्नटदार लहँगा ऊँची कसी छोटी बाजू वाली अंगिया पारदर्शक छापेदार ओढ़नी तथा माथे गले बाजू कलाई नासिका कमर पैरों आदि में विविध प्रकार के आभूषण से सुसज्जित दर्शाया गया है। पुरुषाकृतियाँ भी लम्बी छरहरी उन्नत ललाट वाली हैं जिनके पतले अधर सुदीर्घ नेत्र उतिष्ठ नासिका घुँघराले बाल लम्बी अजानु भुजायें उन्नत कन्धे आदि हैं। पुरुष वेशभूषा में मुगल मौहम्मद शाही पारदर्शक लम्बे जामे पायजामें कमर में पटका सिर पर पगड़ी (जो रत्न जड़ित है) अथवा कहीं-कहीं धोती की मनमोहक सज्जा दिखायी देती है।
किशनगढ़ शैली में मुख्य रूप से कृष्ण सम्बन्धी चित्र मिलते हैं जो कि सावन्त सिंह की काव्य रचनाओं पर आधारित हैं। इनके ग्रन्थों की संख्या 75 बतायी जाती हैं जो नागर समुच्चय के नाम से प्रसिद्ध है। नागरीदास के इन ग्रन्थों पर निहालचन्द ने 1735 से 1757 ई० के मध्य जिन चित्रों की रचना की वह किशनगढ़ चित्रकारों के लिये ही नहीं वरन् राजस्थानी चित्रण के लिये एक आदर्श माना जाता है।
जिसमे कृष्ण गोकुल या वृन्दावन के ग्वाले के रूप में चित्रित न होकर एक शाही वैभव पूर्ण राजपूत राजकुमार के समान प्रतीत होते हैं। साथ ही राधा एक गोपिका न होकर एक मदमस्त युवती है। 1757 ई० में सावन्त सिंह राजसिंहासन को छोड़कर बनी-ठनी के साथ वृन्दावन चले गये जहाँ 1764 में उनका देहान्त हो गया और उसके एक वर्ष पश्चात् बनी-ठनी भी स्वर्ग सिधार गयी।
किशनगढ़ चित्रों की खोज
किशनगढ़ चित्रों की खोज का श्रेय एरिक डिकिन्सन (Eric Dickinson) को जाता जो लाहौर के राजकीय विद्यालय में अंग्रेजी साहित्य के प्रोफेसर थे परन्तु उनकी मुख्य रुचि भारतीय संस्कृति का ज्ञान प्राप्त करने में थी। वह स्वयं भी भारतीय वेशभूषा धारण कर भारतीय जनजीवन के कुछ पलों को जीते थे।
जब वह 1943 ई० में मेयो कॉलिज अजमेर गये तो किशनगढ़ की कला एवं संस्कृति देखने हेतु भी गये। यहीं इन्होंने किशनगढ़ चित्रों के सौन्दर्य की खोज की। किशनगढ़ के राजा वैष्णव सम्प्रदाय के अनुयायी थे जिसके अनुसार राधा कृष्ण को आत्मा-परमात्मा का प्रतीक माना गया और उनकी क्रियाओं को दर्शात हुये यहाँ के कलाकारों ने एक रमणीय लोक की सृष्टि की जिसे जादूमय कहा गया।
कृष्ण की क्रीड़ाओं से सम्बन्धित निहालचन्द का भागवत पुराण का एक चित्र मिलता है जिसमें कृष्ण ने अपनी अंगुली पर गोवर्धन पर्वत को धारण किया हुआ है ताकि वह ब्रज-वासियों को वर्षा के प्रकोप से बचा सके। कृष्ण निरन्तर सात दिन तक गोवर्धन को धारण किये रहे सम्पूर्ण चित्र का संयोजन दर्शनीय है। मध्य में कृष्ण की छरहरी आकृति पीला वस्त्र धारण किये स्वर्णिम प्रभामण्डल से युक्त है। कृष्ण के ऊपर की ओर गोवर्धन पर्वत है। जिस पर वृक्षों का आभास दर्शाया गया है। पृष्ठभूमि में गहरे सलेटी रंग का आकाश तथा स्वर्णिम विद्युत रेखा अंकित है। बायीं ओर राधा तथा ब्रज की गोपिकायें तथा दासी और नन्द बाबा ग्वाल-बाल आदि तथा अग्रभूमि में दोनों और बहुत भी गाय चित्रित हैं। चित्र का संयोजन लगभग सम्मानित है परन्तु फिर भी विद्युत रेखा वस्त्रों की फहरान गायों की बाह्य रेखा आदि के माध्यम से गतिशीलता दर्शाने का प्रयास किया गया है।
किशनगढ़ शैली में मुख्य रूप से कृष्ण सम्बन्धी चित्र मिलते हैं। जिनमें गोवर्धन धारण, छत पर राधा-कृष्ण राधा को कमल देते कृष्ण प्रेम की नौका कृष्ण संदेश आदि विशिष्ट है। प्रेम की नौका नामक चित्र 1760 ई० के लगभग का है जो निहालचन्द द्वारा बनाया गया।
चित्र में दो दृश्य है । ऊपर वाले दृश्य में कृष्ण तथा राधा (जो वास्तव में सावन्त सिंह तथा उनकी मल्लिका है) अपनी दासियों के साथ है जो प्रकृति के अनुपम सौन्दर्य का रसपान कर हैं। नौका का लाल रंग है जो प्रेम का प्रतीक है। झील कमल के फूलों व पत्तों से सुशोभित है। झील के तट पर श्वेत तथा गुलाबी वास्तु का विशिष्ठ अंकन हरे रंग के घने वृक्षों के विरोध में किया गया है । पृष्ठभूमि में टीले के पीछे स्वर्णिम सूरज तथा उसके चारों ओर नारंगी रंग का आकाश है। ऊपर की ओर से आकाश का रंग सलेटी है जिसमें कहीं-कहीं श्वेत रंग के कुछ बादल बने है। अग्रभूमि के परिदृश्य में घने पेड़ों के झुरमुट में राधा-कृष्ण प्रेमी प्रेमिका के रूप में चित्रित हैं।
कृष्ण सम्बन्धी चित्रों के अतिरिक्त किशनगढ़ शैली के चित्रों में पौराणिक विषयों को लेकर भी चित्र बने जिसका उत्तम दृष्टान्त प्रस्तुत करने में वनवास में राम लक्ष्मण और सीता नामक चित्र सक्षम है।
इस चित्र में राम-सीता और लक्ष्मण के एक झील के किनारें विश्राम करते हुये दर्शाया गया है जिनके आगमन से प्रकृति का प्रत्येक अवयव, प्रत्येक पक्षी, भाव-विभोर होकर प्रसन्न है । पृष्ठभूमि में ऋषि-मुनियों के आश्रम है। दृश्य रामायण से लिया गया है।
विषयों की विविधता की श्रृंखला को आगे बढ़ातां हुआ सावन्त सिंह का व्यक्ति चित्र ( 1745 ई०) महत्वपूर्ण है। इस चित्र में उन्हें एक उद्यान में खड़ी मुद्रा में तलवार तथा शील्ड के साथ दर्शाया है जो प्रदर्शित करता है कि वह कवि तथा रसिक होने के साथ-सा एक उच्च कोटि के योद्धा भी थे। पृष्ठभूमि में एक झील है जिसमें श्वेत तथा लाल नौकाऐं हैं और किनारे पर एक हाथी स्नान कर रहा है। सावन्त सिंह छत पर खड़े हैं जहाँ छोटी-छोटी क्यारियाँ बनी हैं। सामने की ओर महल है जिसके ऊपर की ओर एक बालकनी से नायिका झीने आवरण में से निहार रही है और एक श्वेत पुष्प माला अपने प्रियतम को प्रस्तुत कर रही है।
चूंकि किशनगढ़ शैली के चित्र मुख्य रूप से राधा-माधव के ही विभिन्न आयामों को दर्शाते हैं। इसलिये इस प्रकार के विषयों के प्रस्तुतिकरण की श्रृंखला को बनाने में गीत-गोविन्द भागवत पुराण नागरीदास के पद रुक्मणी हरण आदि ग्रन्थ किशनगढ़ शैली को एक विस्तार प्रदान करते है।
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